सोमवार, 12 अप्रैल 2010

यादों का पंछी

यादों का पंछी लफ्जों की उड़ान पर था।
डूबता सूरज फिर सफर की थकान पर था।

तेरी यादों का जंगल हरसू फैला था मेरी ओर
मैं भटकता रहा तेरी कायनात में, पहुंचा तो कोई और मकाम पर था।

तेरी आंखों का पहरा, तेरे जिस्म का संदल, वो यादों की बस्ती
सब ले आया मैं, नाकाम पर था।

चुन-चुन कर बांट दी उसने सब नियामतें दुनिया को,
जब आई बारी मेरी तो बाखुदा खुदा भी दूसरे काम पर था।

तू जाने कब निकल गई मुझसे सदियों आगे
मेरे लिए आज भी वक्त ठहरा उसी मुलाकात की शाम पर था।

1 टिप्पणी: