गुरुवार, 30 जून 2011

हम कतरा-कतरा थे


मोहब्बत के सफर में
कुछ ऐसे भी मंजर थे
हम कतरा-कतरा थे
तुम समंदर-समंदर थे।
ये दुनिया थी पहरे पर
कुछ मायूसी के आलम में
हम यूं बाहर-बाहर थे
तुम कहीं अंदर-अंदर थे
किस तरह लायक हो पाते
आपके खूबसूरत अक्स के लिए
हम बस औसत-औसत थे
तुम कहीं सुंदर-सुंदर थे।

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

उदास नज्में

इन जाहिलों की भीड़ में जो थोडे से जुदा हो गए
मत पूछिए कि समझ बैठे की वो खुदा हो गए।

जिन्होंने कश्तियों को निकाला हैं तुफां से वो हाशिए पर
जो इस मुल्क को किनारे पर डुबा आए खुदाकसम वो नाखूदा हो गए।

ये अजब दौर कायम हुआ है जेहनी मुफलीसी का
वो मशहूर हो गए जो बेहुदा हो गए।

मेरी नज्में न जाने क्यों उदास-उदास रहती हैं तब से
मरने वाले आम और मारने वाले अलहदा हो गए।

इस व्यवस्था में से अब मुर्दो की सी बू आती है
अब इबादत करने वाले काफिर, कुफ्र करने वाले बाखूदा हो गए।

ये जाने कैसा मौसम चला है मेरे शहर में
शिकवा करने की हिमाकत करने वाले अरसे पहले गुमशुदा हो गए।

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

मशाल बना दो...

सुनिए इस मुल्क की ये अजब कहानी है
गला तर है हुक्मरां का खूं से, मेरे नसीब में न घूंट भर पानी है।

मेरे अल्फाजों से बदल जाएगी इन लोगों की तकदीर
महज कागजों के ढेर से ये उम्मीद बहुत ही बेमानी है।

कुछ कहिए मत इन बहरों और गूंगो की फौज से
बस देखिए लुत्फ उठाइए तमाशा-ए-जिंदगानी है।

शायर तो बेमतलब ही रंग रहा है इन कागजों को अपने खूं से
किसके पास वक्त है किसे अपनी पीर सुनानी है।

तुम समझ बैठे हो इन मुर्दो की फौज में कोई हरकत होगी
गर लड़े इनके भरोसे तो बीच मैदान मूंह की खानी है।

दाग लगी रूह को ढांपते हैं ये सफेद खादी की आड में
अपने चेहरों पर लगी कालिख को छुपाने में इनकी न कोई सानी है।

इंसानीयत को कत्ल कर बूचड खाने में बेचने का धंधा है
क्या कहें इस पेशे की तासीर ही कुछ हैवानी है।

ये समझते हैं कि सर कलम कर देंगे कलमपरस्ती करने वालों का
हम भी आदत से मजबूर सच्ची बात ही सुनानी है।

लोगों यह गलतफहमी है कि सब बदल जाएगा महज नारों से
समझो किसी इंकलाब के लिए इस खूं की तासीर ही बदलवानी है।

मशाल बना दो मेरे जिस्म को ताकि खून की गर्मी का अंदाज हो
इक अंगारा तो सुलगे तेरे अंदर मुझे ये पूरी सड ती व्यवस्था बदलवानी है।

रविवार, 16 मई 2010

यादें बिखरती हैं

आज सुबह एक याद मेरे आंगन में टहल रही थी।
कभी वो चमकती लड़की सी, कभी बच्ची सी मचल रही थी।

दोपहर तक सिकुड कर धूप से पलाश के नीचे पिघल रही थी।
मेरे गले में बाजूओं का हार डाल मोतियों सी बिखर रही थी।

ढलती सांझ के लौटते मुसाफिर के कंधों पर झोले सी लटक रही थी।
गहरे कूंए की ओट पर ठण्डी-ठण्डी, भीगी-भीगी चमक रही थी।


मेरी आंखो पर रोशनी के फाए रख हौले-हौले ठुमक रही थी।
रात की रोशन चांदनी में गर्म-गर्म दहक रही थी।

सुबह की चाय में चीनी सी मीठी दिल में उतर रही थी।
फिर एक याद मेरे आशियाने में बेसाखता करवट बदल रही थी।

रीतती यादें

मैंने देखी है इक लड़की
बिल्कुल सपनों सी लगती है।
गुडि यों सी बातें करती है
हल्के झोकों सी बहती है
दूर देश में वो रहती है
मुझसे ये अक्सर कहती है

मीठे-मीठे तुम लगते हो
मेरे दिल में तुम रहते हो
जाने मेरे क्या लगते हो

तुमसे मेरे सपन सलोने
कुछ-कुछ क्यूं लगता है होने
मेरे मन में तेरी यादें
तेरे सपने तेरी बातें
तेरे संग वो चांद की रातें

जाने फिर कब तुम लौटोगे
जाने फिर कब सावन आएगा
जाने कब ये बरखा होगी
जाने फिर कब मौसम आएगा

मेरा शहर अकेला तुझ बिन
तुझ बिन मेरे सहर अधूरे
इस वक्त के प्याले से मैं
धीरे-धीरे रीत रही हूं
मैंने रोक रखी हैं सदियां
धीरे-धीरे जीत रही हूं।

तू हो जाएगा जिस दिन मेरा
मैं तुझमें खो जाऊंगी
उसी दिन ओ मेरे जीवन
तुझको मैं फिर से पाऊंगी।

शनिवार, 15 मई 2010

यादों का पंछी

यादों का पंछी

यादो का पछी लफ्जो की उड़ान पर था।
डूबता सूरज फिर सफर की थकान पर था।

तेरी यादों का जंगल हरसू फैला था मेरी ओर
मैं भटकता रहा तेरी कायनात में, पहुंचा तो कोई और मकाम पर था।

तेरी आंखों का पहरा, तेरे जिस्म का संदल, वो यादो की बस्ती
सब ले आया मैं, नाकाम पर था।

चुन-चुन कर बांट दी उसने सब नियामतें दुनिया को,
जब आई बारी मेरी तो बाखुदा खुदा भी दूसरे काम पर था।

तू जाने कब निकल गई मुझसे सदियों आगे
मेरे लिए आज भी वक्त ठहरा उसी मुलाकात की शाम पर था।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

याद सयानी है।




इस वक्त की भी अजब कहानी है।
वो न आए तो पहाड़ जो आ जाए तो बहता पानी है।

खोलो अपने पंखों को और छू लो ये आसमां
कौन जाने कल क्या होगा बस दो-चार दिन की ये जवानी है।

मोहब्बत में गुजार दो जिंदगी किसी हसीन दरखत के तले
क्या फिक्र की कौन गुजर गया ये कांरवा तो हमेच्चा आनी-जानी है।

कह दो चांद से भी की अपनी हद में रहे
उसको भी मालूम हो कि इक दीवना ऐसा भी है जो करता अपनी मनमानी है।

बहुत सुना दी है कहानियां चांद और परीयों के देच्च में जाने की
कुछ हकीकत भी सुनाओं की कोई मुल्क ए मोहब्बत ऐसा भी है जहां न राजा न कोई रानी है।

कभी मेरे आंखों से निकाल दे पानी के सैलाब
और कभी होठों पर तब्बसुम
इस याद का क्या करें ये भी मेरे माच्चूक की तरह बहुत सयानी है।