सोमवार, 12 अप्रैल 2010

यादों की संदूक

मैंने इक शाम सबकी नजर बचाकर
तेरी यादों की पुरानी संदूक खोली
कुछ राज निकाले, कुछ बातें टटोली
इक मरमरी हंसी, कुछ बेपरदा दर्द
कोई जंग खाया ताबीज
तेरे गाल की लाली
तिरी आंसूओ से नम इक पीली ओढ़नी
इक शिकायत का पुलिंदा कुछ तारीफ के साथ
तेरे नाम में शामिल मेरे नाम का क्रोशिया किया रूमाल
कंधे से चिपकी चांद की रातें
सर्द सुब्हों में चाय की चुस्की
और मिला इक पुराना खत
लिखा था तुमने
सालों बाद मिरी याद के लिए
तुम्हारे नाम

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