गुरुवार, 16 सितंबर 2010

मशाल बना दो...

सुनिए इस मुल्क की ये अजब कहानी है
गला तर है हुक्मरां का खूं से, मेरे नसीब में न घूंट भर पानी है।

मेरे अल्फाजों से बदल जाएगी इन लोगों की तकदीर
महज कागजों के ढेर से ये उम्मीद बहुत ही बेमानी है।

कुछ कहिए मत इन बहरों और गूंगो की फौज से
बस देखिए लुत्फ उठाइए तमाशा-ए-जिंदगानी है।

शायर तो बेमतलब ही रंग रहा है इन कागजों को अपने खूं से
किसके पास वक्त है किसे अपनी पीर सुनानी है।

तुम समझ बैठे हो इन मुर्दो की फौज में कोई हरकत होगी
गर लड़े इनके भरोसे तो बीच मैदान मूंह की खानी है।

दाग लगी रूह को ढांपते हैं ये सफेद खादी की आड में
अपने चेहरों पर लगी कालिख को छुपाने में इनकी न कोई सानी है।

इंसानीयत को कत्ल कर बूचड खाने में बेचने का धंधा है
क्या कहें इस पेशे की तासीर ही कुछ हैवानी है।

ये समझते हैं कि सर कलम कर देंगे कलमपरस्ती करने वालों का
हम भी आदत से मजबूर सच्ची बात ही सुनानी है।

लोगों यह गलतफहमी है कि सब बदल जाएगा महज नारों से
समझो किसी इंकलाब के लिए इस खूं की तासीर ही बदलवानी है।

मशाल बना दो मेरे जिस्म को ताकि खून की गर्मी का अंदाज हो
इक अंगारा तो सुलगे तेरे अंदर मुझे ये पूरी सड ती व्यवस्था बदलवानी है।

रविवार, 16 मई 2010

यादें बिखरती हैं

आज सुबह एक याद मेरे आंगन में टहल रही थी।
कभी वो चमकती लड़की सी, कभी बच्ची सी मचल रही थी।

दोपहर तक सिकुड कर धूप से पलाश के नीचे पिघल रही थी।
मेरे गले में बाजूओं का हार डाल मोतियों सी बिखर रही थी।

ढलती सांझ के लौटते मुसाफिर के कंधों पर झोले सी लटक रही थी।
गहरे कूंए की ओट पर ठण्डी-ठण्डी, भीगी-भीगी चमक रही थी।


मेरी आंखो पर रोशनी के फाए रख हौले-हौले ठुमक रही थी।
रात की रोशन चांदनी में गर्म-गर्म दहक रही थी।

सुबह की चाय में चीनी सी मीठी दिल में उतर रही थी।
फिर एक याद मेरे आशियाने में बेसाखता करवट बदल रही थी।

रीतती यादें

मैंने देखी है इक लड़की
बिल्कुल सपनों सी लगती है।
गुडि यों सी बातें करती है
हल्के झोकों सी बहती है
दूर देश में वो रहती है
मुझसे ये अक्सर कहती है

मीठे-मीठे तुम लगते हो
मेरे दिल में तुम रहते हो
जाने मेरे क्या लगते हो

तुमसे मेरे सपन सलोने
कुछ-कुछ क्यूं लगता है होने
मेरे मन में तेरी यादें
तेरे सपने तेरी बातें
तेरे संग वो चांद की रातें

जाने फिर कब तुम लौटोगे
जाने फिर कब सावन आएगा
जाने कब ये बरखा होगी
जाने फिर कब मौसम आएगा

मेरा शहर अकेला तुझ बिन
तुझ बिन मेरे सहर अधूरे
इस वक्त के प्याले से मैं
धीरे-धीरे रीत रही हूं
मैंने रोक रखी हैं सदियां
धीरे-धीरे जीत रही हूं।

तू हो जाएगा जिस दिन मेरा
मैं तुझमें खो जाऊंगी
उसी दिन ओ मेरे जीवन
तुझको मैं फिर से पाऊंगी।

शनिवार, 15 मई 2010

यादों का पंछी

यादों का पंछी

यादो का पछी लफ्जो की उड़ान पर था।
डूबता सूरज फिर सफर की थकान पर था।

तेरी यादों का जंगल हरसू फैला था मेरी ओर
मैं भटकता रहा तेरी कायनात में, पहुंचा तो कोई और मकाम पर था।

तेरी आंखों का पहरा, तेरे जिस्म का संदल, वो यादो की बस्ती
सब ले आया मैं, नाकाम पर था।

चुन-चुन कर बांट दी उसने सब नियामतें दुनिया को,
जब आई बारी मेरी तो बाखुदा खुदा भी दूसरे काम पर था।

तू जाने कब निकल गई मुझसे सदियों आगे
मेरे लिए आज भी वक्त ठहरा उसी मुलाकात की शाम पर था।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

याद सयानी है।




इस वक्त की भी अजब कहानी है।
वो न आए तो पहाड़ जो आ जाए तो बहता पानी है।

खोलो अपने पंखों को और छू लो ये आसमां
कौन जाने कल क्या होगा बस दो-चार दिन की ये जवानी है।

मोहब्बत में गुजार दो जिंदगी किसी हसीन दरखत के तले
क्या फिक्र की कौन गुजर गया ये कांरवा तो हमेच्चा आनी-जानी है।

कह दो चांद से भी की अपनी हद में रहे
उसको भी मालूम हो कि इक दीवना ऐसा भी है जो करता अपनी मनमानी है।

बहुत सुना दी है कहानियां चांद और परीयों के देच्च में जाने की
कुछ हकीकत भी सुनाओं की कोई मुल्क ए मोहब्बत ऐसा भी है जहां न राजा न कोई रानी है।

कभी मेरे आंखों से निकाल दे पानी के सैलाब
और कभी होठों पर तब्बसुम
इस याद का क्या करें ये भी मेरे माच्चूक की तरह बहुत सयानी है।

तेरा खयाल सही

तू न सही तेरा खयाल सही
राहत न मिले तो बेहाल सही

हम पर तेरी आंखों का सुरूर हावी है
आज हुआ ये जुर्मे इकबाल सही

कई कत्ल हो गए इस शहर में
नई खबर नहीं, ताजा हाल सही

कुर्सी के फेर में चौराहों पर बिक गये
कोई शर्म नहीं, मोटी खाल सही

चिल्लाने में भी गीत का लुत्फ है
दिल ए दर्द, बिना सुर बिना ताल सही

तेरे खून में इक अजब सा मजा है
चूसने के लिए जम्हूरियत का जाल सही

कोई सुनता नहीं बहरों के इस मुल्क में
हल्ला मचाने को एक बेमतबल बवाल सही

सफेदपोशों से जवाब की उम्मीद की बेमानी है
चलो जिंदगी इक खूबसूरत सवाल सही

सुनते हैं कि पानी बहता है अब इस जिस्म में
कोई भगवा, कोई कहता है लाल सही

अफवाह है कि किस्मत बदल देंगे मुल्क की
चलो इसी बहाने बीता एक और साल सही ।

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

याद क्या है...

याद क्या है
एक बूंद स्वाती की
जो समय के ज्वार में टपक गई
या फिर एक कतरा आंसू का
जो तेरे गेसुओं से होता हुई मिरी रूह
में ढलक गया।
याद क्या है
मेरे गांव की वो कोयल जो
अमराई के झुरमुठे से मुझे पुकारती है।
जो अपनी बोली मेरे कानों में मिश्री
की तरह उतारती है।
याद क्या है
मेरी मां का आंचल
जिससे रोटी सेकने के बाद
सोंधी गंध आती है।
चलता हूं जब भी सहरा की जलाने वाली
धूप में उसकी ही दुआएं संग आती हैं।
याद मेरे खेत के किनारे वाली
पोखर का छलछलाता पानी है।
याद मेरे आंगन के कपड़े सुखाने वाली
डंडी है।
याद मेरे बाबा की वो पूरानी घड ी है
जिसमें याद करके चाभी भरनी पड ती थी।
याद मेरी अम्मा का पुराना फोटो अलबम है
जिसमें वो मेरे नाना को अक्सर खोजा करती थी।

यादों की अय्यारी

आपकी याद में हमने पल-पल में सदियां गुजारी है,
थोड़ा जल्दी करो इस दिल पर हरेक लम्हा भारी है।

वो तेरे पैरों की आहट, वो तिरे आने का मंजर
कहीं हमारा दम न निकल जाए अभी मेरी जां के निकलने की बारी है।

तेरी आंखों के सदके वो गुलाबों की ओढ नी
बेमतलब बदनाम है सब तिरे दिल की अय्यारी है।

इक आरजू है तिरी महक को पा लेने की,
वरना लौटने की तो इस पंछी की कबसे तैयारी है।

कौन कमबखत लड रहा है तुुझसे जीतने के लिए
तेरी यादों के आगे तो अपनी हर ईक ्यै हारी है।

कह दो इस दुनिया के मालिक से की लौट जाए
तेरी मुहब्बत का पलड ा उसकी हर इक मिट्टी से भारी है।

कोई गम नहीं है कि ये दुनिया वाले किस ओर निकल जाए
उनकी अदावत और अपनी मुहब्बत हर लम्हा जारी है।


थोड ी देर के लिए ए वक्त तू भी ठहर जाएगा
अभी-अभी उन्होंने अपनी पलकें सवारी हैं।

यादों की संदूक

मैंने इक शाम सबकी नजर बचाकर
तेरी यादों की पुरानी संदूक खोली
कुछ राज निकाले, कुछ बातें टटोली
इक मरमरी हंसी, कुछ बेपरदा दर्द
कोई जंग खाया ताबीज
तेरे गाल की लाली
तिरी आंसूओ से नम इक पीली ओढ़नी
इक शिकायत का पुलिंदा कुछ तारीफ के साथ
तेरे नाम में शामिल मेरे नाम का क्रोशिया किया रूमाल
कंधे से चिपकी चांद की रातें
सर्द सुब्हों में चाय की चुस्की
और मिला इक पुराना खत
लिखा था तुमने
सालों बाद मिरी याद के लिए
तुम्हारे नाम

यादों का पंछी

यादों का पंछी लफ्जों की उड़ान पर था।
डूबता सूरज फिर सफर की थकान पर था।

तेरी यादों का जंगल हरसू फैला था मेरी ओर
मैं भटकता रहा तेरी कायनात में, पहुंचा तो कोई और मकाम पर था।

तेरी आंखों का पहरा, तेरे जिस्म का संदल, वो यादों की बस्ती
सब ले आया मैं, नाकाम पर था।

चुन-चुन कर बांट दी उसने सब नियामतें दुनिया को,
जब आई बारी मेरी तो बाखुदा खुदा भी दूसरे काम पर था।

तू जाने कब निकल गई मुझसे सदियों आगे
मेरे लिए आज भी वक्त ठहरा उसी मुलाकात की शाम पर था।

यादें क्यों पिघलती हैं......

कल फिर मेरे अंदर कुछ पिघला-पिघला था।
मुझे यकीं है, कोई याद तेरी आंख से भी टपकी होगी।

कभी रात तेरी भी आंखों में कटी होगी।
कभी दिन तेरा भी सदियों से गुजरा होगा।

कभी तूने भी अंधेरों में रोशनी खोजी होगी,
कभी तुझे भी खामो्यी का जंगल मिला होगा।

कभी तेरी नदियां भी प्यासी होगी,
कभी तेरा सहरा भी सूखा होगा।

कोई दर्द रह-रहकर तुझसे मिलता होगा,
कोई मेला तेरी खिड़की तले भी लगता होगा।

कल फिर मेरी आंख याद टपकी थी,
तेरे अंदर भी जरूर कुछ पिघला होगा।