गुरुवार, 16 सितंबर 2010

मशाल बना दो...

सुनिए इस मुल्क की ये अजब कहानी है
गला तर है हुक्मरां का खूं से, मेरे नसीब में न घूंट भर पानी है।

मेरे अल्फाजों से बदल जाएगी इन लोगों की तकदीर
महज कागजों के ढेर से ये उम्मीद बहुत ही बेमानी है।

कुछ कहिए मत इन बहरों और गूंगो की फौज से
बस देखिए लुत्फ उठाइए तमाशा-ए-जिंदगानी है।

शायर तो बेमतलब ही रंग रहा है इन कागजों को अपने खूं से
किसके पास वक्त है किसे अपनी पीर सुनानी है।

तुम समझ बैठे हो इन मुर्दो की फौज में कोई हरकत होगी
गर लड़े इनके भरोसे तो बीच मैदान मूंह की खानी है।

दाग लगी रूह को ढांपते हैं ये सफेद खादी की आड में
अपने चेहरों पर लगी कालिख को छुपाने में इनकी न कोई सानी है।

इंसानीयत को कत्ल कर बूचड खाने में बेचने का धंधा है
क्या कहें इस पेशे की तासीर ही कुछ हैवानी है।

ये समझते हैं कि सर कलम कर देंगे कलमपरस्ती करने वालों का
हम भी आदत से मजबूर सच्ची बात ही सुनानी है।

लोगों यह गलतफहमी है कि सब बदल जाएगा महज नारों से
समझो किसी इंकलाब के लिए इस खूं की तासीर ही बदलवानी है।

मशाल बना दो मेरे जिस्म को ताकि खून की गर्मी का अंदाज हो
इक अंगारा तो सुलगे तेरे अंदर मुझे ये पूरी सड ती व्यवस्था बदलवानी है।