आज सुबह एक याद मेरे आंगन में टहल रही थी।
कभी वो चमकती लड़की सी, कभी बच्ची सी मचल रही थी।
दोपहर तक सिकुड कर धूप से पलाश के नीचे पिघल रही थी।
मेरे गले में बाजूओं का हार डाल मोतियों सी बिखर रही थी।
ढलती सांझ के लौटते मुसाफिर के कंधों पर झोले सी लटक रही थी।
गहरे कूंए की ओट पर ठण्डी-ठण्डी, भीगी-भीगी चमक रही थी।
मेरी आंखो पर रोशनी के फाए रख हौले-हौले ठुमक रही थी।
रात की रोशन चांदनी में गर्म-गर्म दहक रही थी।
सुबह की चाय में चीनी सी मीठी दिल में उतर रही थी।
फिर एक याद मेरे आशियाने में बेसाखता करवट बदल रही थी।
कहते हैं कि वक्त नहीं लौटता। वक्त लौटता है, बस जरूरत है उसे यादों में सहेजने की, इस पन्ने पर यही कोशिश की गई है। ये तमाम लफ्ज मेरी जिंदगी की किसी न किसी वाकये से जुड़े हुए हैं। जब भी मुझे उन लम्हों को फिर से जीना होगा। मैं इन शब्दों के पुल से वापस लौटुंगा, एक बार फिर से पुराने दौर में। ये मेरी टाइम मशीन है जो विज्ञान के बजाए भावनाओं के रसायन से चलती है।
रविवार, 16 मई 2010
रीतती यादें
मैंने देखी है इक लड़की
बिल्कुल सपनों सी लगती है।
गुडि यों सी बातें करती है
हल्के झोकों सी बहती है
दूर देश में वो रहती है
मुझसे ये अक्सर कहती है
मीठे-मीठे तुम लगते हो
मेरे दिल में तुम रहते हो
जाने मेरे क्या लगते हो
तुमसे मेरे सपन सलोने
कुछ-कुछ क्यूं लगता है होने
मेरे मन में तेरी यादें
तेरे सपने तेरी बातें
तेरे संग वो चांद की रातें
जाने फिर कब तुम लौटोगे
जाने फिर कब सावन आएगा
जाने कब ये बरखा होगी
जाने फिर कब मौसम आएगा
मेरा शहर अकेला तुझ बिन
तुझ बिन मेरे सहर अधूरे
इस वक्त के प्याले से मैं
धीरे-धीरे रीत रही हूं
मैंने रोक रखी हैं सदियां
धीरे-धीरे जीत रही हूं।
तू हो जाएगा जिस दिन मेरा
मैं तुझमें खो जाऊंगी
उसी दिन ओ मेरे जीवन
तुझको मैं फिर से पाऊंगी।
बिल्कुल सपनों सी लगती है।
गुडि यों सी बातें करती है
हल्के झोकों सी बहती है
दूर देश में वो रहती है
मुझसे ये अक्सर कहती है
मीठे-मीठे तुम लगते हो
मेरे दिल में तुम रहते हो
जाने मेरे क्या लगते हो
तुमसे मेरे सपन सलोने
कुछ-कुछ क्यूं लगता है होने
मेरे मन में तेरी यादें
तेरे सपने तेरी बातें
तेरे संग वो चांद की रातें
जाने फिर कब तुम लौटोगे
जाने फिर कब सावन आएगा
जाने कब ये बरखा होगी
जाने फिर कब मौसम आएगा
मेरा शहर अकेला तुझ बिन
तुझ बिन मेरे सहर अधूरे
इस वक्त के प्याले से मैं
धीरे-धीरे रीत रही हूं
मैंने रोक रखी हैं सदियां
धीरे-धीरे जीत रही हूं।
तू हो जाएगा जिस दिन मेरा
मैं तुझमें खो जाऊंगी
उसी दिन ओ मेरे जीवन
तुझको मैं फिर से पाऊंगी।
शनिवार, 15 मई 2010
यादों का पंछी
यादों का पंछी
यादो का पछी लफ्जो की उड़ान पर था।
डूबता सूरज फिर सफर की थकान पर था।
तेरी यादों का जंगल हरसू फैला था मेरी ओर
मैं भटकता रहा तेरी कायनात में, पहुंचा तो कोई और मकाम पर था।
तेरी आंखों का पहरा, तेरे जिस्म का संदल, वो यादो की बस्ती
सब ले आया मैं, नाकाम पर था।
चुन-चुन कर बांट दी उसने सब नियामतें दुनिया को,
जब आई बारी मेरी तो बाखुदा खुदा भी दूसरे काम पर था।
तू जाने कब निकल गई मुझसे सदियों आगे
मेरे लिए आज भी वक्त ठहरा उसी मुलाकात की शाम पर था।
यादो का पछी लफ्जो की उड़ान पर था।
डूबता सूरज फिर सफर की थकान पर था।
तेरी यादों का जंगल हरसू फैला था मेरी ओर
मैं भटकता रहा तेरी कायनात में, पहुंचा तो कोई और मकाम पर था।
तेरी आंखों का पहरा, तेरे जिस्म का संदल, वो यादो की बस्ती
सब ले आया मैं, नाकाम पर था।
चुन-चुन कर बांट दी उसने सब नियामतें दुनिया को,
जब आई बारी मेरी तो बाखुदा खुदा भी दूसरे काम पर था।
तू जाने कब निकल गई मुझसे सदियों आगे
मेरे लिए आज भी वक्त ठहरा उसी मुलाकात की शाम पर था।
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